Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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फिर पर्दा उठा है। वृक्षों के समूह में एक छोटा सा गाँव दिखाई दिया। फूस के कई झोंपड़े थे, बहुत ही साफ-सुथरे, फूल-पत्तियों से सजे हुए। उनमें कहीं-कहीं गायें बँधी हुई थीं, कहीं बछड़े किलोलें करते थे, कहीं दूध बिलोया जाता था। बड़ा सुरम्य दृश्य था! एक मकान में चंद्रावली पलंग पर पड़ी कराह रही थी। उसके सिरहाने कई आदमी बैठे पंखा झल रहे थे, कई स्त्रियाँ पैर की ओर खड़ी थीं। ‘बैद! बैद! की पुकार हो रही थी। दूसरी झोंपड़ी में ललिता पड़ी थी। उसके पास भी कई स्त्रियाँ बैठी टोना-टोटका कर रही थीं, कई कहती थी, आसेव है, और चुड़ैल का फेर बतलाती थीं। ओझा जी को बुलाने की बातचीत हो रही थी। एक युवक खड़ा कह रहा था– यह सब तुम्हारा ढकोसला है, इसे कोई हृदयरोग है, किसी चतुर वैद्य को बुलाना चाहिए। तीसरे झोंपड़े में श्यामा की खटोली थी। वहाँ भी यही वैद्य की पुकार थी। चौथा मकान बहुत बड़ा था। द्वार पर बड़ी-बड़ी गायें थी। एक ओर अनाज के ढेर लगे हुए थे, दूसरी ओर मटकों में दूध भरा रखा था। चारों तरफ सफाई थी। इसमें राधिका रुग्णावस्था में बेचैन पड़ी थी। उसके समीप एक पंडित जी आसन पर बैठे हुए पाठ कर रहे थे। द्वार पर भिक्षुकों को अन्नदान दिया जा रहा था। घर के लोग राधिका को चिन्तित नेत्रों से देखते थे और ‘बैद! बैद!’ पुकारते थे।

सहसा दूर से आवाज आयी– बैद! बैद! सब रोगों का बैद, काम का बैद, क्रोध का बैद, मोह का बैद, लोभ का बैद, धर्म का बैद, कर्म का बैद, मोक्ष का बैद! मन का मैल निकाले, अज्ञान का मैल निकाले, ज्ञान की सींगी लगाये, हृदय की पीर मिटाये! बैद! बैद!! लोगों ने बाहर निकल कर वैद्य जी को बुलाया। उसके काँधे पर झोली थी, सिर पर एक लाल गोल पगड़ी देह पर एक हरी, बनात की गोटेदार चपकन थी। आँखों में सुरमा, अधरों पर पान की लाली, चेहरे पर मुस्कराहट थी। चाल-ढाल से बाँकापन बरसता था। स्टेज पर आते ही उन्होंने झोली उतार कर रख दी और बाँसुरी बजा-बजा कर गाने लगे–  

मैं तो हरत विरह की पीर।

प्रेमदाह को शीतल करता जैसे अग्नि को नीर।

मैं तो हरत...

निर्मल ज्ञान की बूटी दे कर देत हृदय को धीर–

मैं तो हरत...

राधा के घर वाले उन्हें हाथों-हाथ अन्दर ले गये। राधिका ने उन्हें देखते ही मुस्करा कर मुँह छिपा लिया। वैद्य जी ने उसकी नाड़ी देखने के बहाने से उसकी गोरी-गोरी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। राधा ने झिझक कर हाथ छुड़ा लिया तब प्रेम-नीति की भाषा में बातें होने लगीं।

राधा– नदी में अथाह जल है।

वैद्य– जिसके पास नौका है उसे जल का क्या भय?

राधा– आँधी है, भयानक लहरें हैं और बडे-बड़े भयंकर जलजन्तु हैं।

वैद्य– मल्लाह चतुर है।

राधा– सूर्य भगवान् निकल आये, पर तारे क्यों जगमगा रहे हैं?

वैद्य– प्रकाश फैलेगा तो वह स्वयं लुप्त हो जायेंगे।

वैद्य जी ने घरवालों को आँखों के इशारे से हटा दिया। जब एकान्त हो गया तब राधा ने मुस्करा कर कहा– प्रेम का धागा कितना दृढ़ है?

ज्ञानशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया।

गायत्री फिर बोली– आग लकड़ी को जलाती है, पर लकड़ी जल जाती है तो आग भी बुझ जाती है।

ज्ञानशंकर ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।

गायत्री ने उसके मुख की ओर विस्मय से देखा, यह मौन क्यों? अपना पार्ट भूल तो नहीं गये? तब तो बड़ी हँसी होगी।

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